आखिरी पन्ने पढ़ने के बाद
भी
सब मजे में हैं...
एक रिक्शेवाला गुजरता है समझाते हुए
जिंदगी में खुश रहना चाहिए
उपन्यास से उछलती है कट्टो
ईंटों के व्यवस्थित ढेर पर
जो अभी मकान नहीं है
असंख्य कीड़े भविष्य की दीमक के उसमें
जानती थी दिशाओं का निर्णय कभी नहीं कर पाऊँगी - कहती हूँ सड़क से, ढेर से,
रिक्शे से, सूखे पत्तों से, रूखी हवा से, खिंचती त्वचा से, आग में जलती हुई
रोशनी से, बारिश से, एकांत में अपने...
महसूस करती हूँ
खुद को पूरा
भग्न नहीं
इल्जाम देती हैं बौछारें
चेहरे पर लिखना था अपने
कि
मेरा
एक
घर
है
मैं सवारी नहीं हूँ अप्रसन्न
जिंदगी में खुश रहने के लिए
कह देती हूँ...
...लेकिन यह कभी काफी नहीं होगा !